[आज से हमारे साथ जुड़ रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार श्री उमेश तिवारी ‘विश्वास’। आइए उनकी रचना ‘अथ दाज्यू कथा’ का आनन्द लें। आशा है आपको पसंद आयेगी।- प्रबंधक]
दाज्यू बोले तो, भाई जी या बड़ा भाई। बचपन में मुंशी प्रेमचन्द्र की कहानी बड़े भाई साहब पढ़ी थी। उनके दाज्यू को बाद में कई हिन्दी फिल्मों में देखता रहा। जैमिनी से ए.व्ही.एम. के बैनरों में, बलराज साहनी से अभिताभ बच्चन के किरदारों में उनकी छवि मिलती रही। अलबत्ता फिल्मी दाज्यू फेल होने के बजाय फर्स्ट क्लास फर्स्ट आते रहे और छोटे को पिलाई गई, लम्बी लैक्चरबाजी की भरपाई करते हुए क्लाइमैक्स में कटा कनकौवा लेकर दौड़ नहीं पड़े। शेखर जोशी की कहानी के दाज्यू पहाड़ के परिवेश से निकल कर देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप चलने के चक्कर में भुली को आहत कर गये।
दरअसल दाज्यू संबोधन से नवाजा गया व्यक्ति उत्तरांचली संदर्भों में एक किसम से बाप जैसा हो जाता है-खैर कहानी से प्राप्त शिक्षा यह है कि यदि किसी खांटी पहाड़ी का भावनात्मक शोषण करना हो तो उसे ‘दाज्यू’ कह दो। इसके लिए खून का रिश्ता या कोई भी रिश्ता होना जरूरी नहीं है। फिर देखो कौतिक; वह अपनी पैन्ट भी खोलकर दे देगा। जादू रे जादू-! –आप ये समझ लीजिए कि सिपाही को दारोगा जी, दीवान जी या छुटभइये को मंत्री जी कहने पर उनके व्यक्तित्व में उद्धात्तता का जो क्षणिक प्रकोप होता है वैसे ही दाज्यू संबोधन पाकर बड़े से बड़े दंभी पिघलते देखे गये हैं। आपको इसका एक उदाहरण दूं, रामलीला हो रही थी, रावण का दरबार लगा था। शूपनर्खा नाक कटाकर आई थी। रावण सैनिकों पर बिगड़े हुए थे। जैसी कि परम्परा है एक-आध राक्षस सैनिक जरूर मसखरा होता है। उसने, आव देखा न ताव, रावण को दाज्यू कह दिया। फिर क्या था, रावण अचानक भाव-विभोर हो गया और मंचीय सीमाओं के भीतर उसका टैम्पो डाउन हो गया। उस्ताद परेशान हो गये कि बहरतबिल वाला गला मालकोष पर क्यों आ गया ? यहां, ऐसी महिमा है, दाज्यू की ।
अगर भाई जी साथ हों तो आपको जेब में हाथ डालने को कतई जरूरत नहीं। खाओ पिओ और दॉत दिखाते हुए पिछवाड़े में हाथ पौंछो। वो अपने आप पेमेंट करेंगे। हो सके तो बांए हाथ से सिर खुजाओ और दांया खिरीज के लिए फ्री रखो। अगर दाज्यू पूछें ‘और खाएगा कुछ’ ? तो कहो, ‘नहीं दाज्यू— कल खा लूंगा’! अगर वो सिगरेट-बीड़ी पीते हों या पान खाते हों तो जरूर पूछो………..‘लाऊॅ क्या’ ? ऐसा पूछते वक्त अंगूठे के बगल वाली दो अंगुलियों की कैंची सी बना लें जिससे नोट पकडने में आसानी हो और जाहिर हो कि आपका छुट्टे से लगाव आदि भी नहीं है। ध्यान रहे
यहा आपका अपना व्यसन आड़े नहीं आना चाहिए। चाहे कुछ हो जाए आप इस कोर्स में भूल कर भी शामिल न हों, वरना सारा खाया-पिया और भविष्य की संभावनाएं चौपट हो सकती है। साथ ही ब्रांड के बारे में ठोक कर पूछ लें। जैसे, बीड़ी के केस में, शेर मार, सिगरेट के केस में फिल्टर, नान फिल्टर और पान के तम्बाकू का नम्बर आदि। आदेश को खुद दोहराएं और ऐसा जताएं जैसे आप उवाचित ब्रांडों आदि को पहली बार सुन रहे हों। इसका यह अर्थ नहीं है कि दाज्यू आपकी निरामिष आदतों के कायल हो जायेंगे, वरन उन्हें यह अहसास हो जाएगा कि लौंडा उनके सामने औकात में चल रहा है। बाद में उक्त मादक पदार्थ वह आपको भी आफर कर सकते हैं। लेकिन आपको टिके रहना है। आप कह सकते हैं ‘नहीं-नहीं दाज्यू कत्तई नही’ ! आपको सुनने मिल सकता है; ‘शाबाश-यार हमको तो कोई समझाने वाला ही नही था-खेल-खेल में भेल हो पड़े’। ध्यान रहे आपको इस कथन के बाबत पश्चाताप या अपनी विल पावर इत्यादि का इशारा देने की आवश्यकता नहीं है। मतलब ये कि आप निम्न जैसा कोई संवाद न बोलें- 1. ‘ओ हो- आपको तो भौती नुकशान हो गया होगा।’ 2- ’नहीं-नहीं, मैंने तो भाबर की बरयात में तक शिगरट-सराब को हात नहीं लगाया जबकि वहाँ भौती दैल-फैल हो रही थी।’ ज्यादा से ज्यादा आप कह सकते हैं, ‘कोई बात नहीं, दाज्यू, कम-कम इस्तेमाल से ज्याधा नुकशान नहीं होता, बल’! तत्पश्चात यदि दाज्यू दार्शनिक अंदाज में कुछ कहें, जैसे-‘अरे यार अब क्या नफा-नुकसान, अकल और उमर को भेट हुई कभी-क्याप्प ठैरा’! पुनः ध्यान रहे आपको केवल खीसें निपोरनी होंगी। चाहे तो इस पड़ाव पर आप सटक सकते हैं, कह सकते हैं, ‘ऐल हिट्नू पै……..’।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है दाज्यू होने के लिए सगा भाई होने की कोई शर्त नहीं है बल्कि असली दाज्यू के दर्शन पड़़ौस इत्यादि में ज्यादा होते हैं। सगे दाज्यू कई बार इतने ‘पजैसिव’ और ‘माडल कोड आफ कन्डक्ट’ वाले होते हैं कि छोटा भाई उनके हृदय तक पहुँच नहीं पाता। वो छोटे भाई को लक्ष्मण के रूप में देखते हैं, अगर वह लक्ष्मण जैसा दिखे तो वो राम बन सकते हैं। पर मुहल्ले के भाई जी थोड़ी कास्मोपोलेटिन छवि रखते हैं। वह फौजी जरनल-कर्नल जैसे कड़क नहीं, रोडवेज की बस के कन्डक्टर जैसे नरम-गरम होते हैं। वह छोटों से थोड़ी बहुत मजाक भी कर लेते हैं। जैसे इण्टर के विद्यार्थी से कह सकते हैं, ‘क्यों लल्ला आजकल कम दिख रहे हो, अभी से गैस पेपर खरीद लिया क्या?’ उनके परिहास में धौनी को बाल न कटवाने की सलाह देते मुशर्रफ की छवि देखी जा सकती है। अपनी टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में दाज्यू नहले पै दहला पसंद नहीं करते। आपको यह दिखाना होता है कि उनकी बात का मजा इधर भी आ रहा है। अगर भाई जी की शब्दावली में दिल, मुहब्बत, टशन इत्यादि जैसे शब्दों का समावेश हो रहा हो तो निश्चित जानिए कि वह अच्छे मूड में हैं। आप चाहें तो इस मूड का फायदा उठा सकते हैं। जैसे अपना चिप्पी लगा नोट उनके नये नोट से बदल सकते हैं या उनके पुराने धूप के चश्मे को अपने लिए मांग सकते है, आदि-आदि।
दिल मुहब्बत इत्यादि की बात चली है तो आपको दाज्यूओं के व्यक्तित्व के उस पहलू के दर्शन करवाता चलूं जो हिन्दी फिल्मों के नायकों के प्रेम/ प्यार के दृष्टिकोण से काफी प्रभावित दिखता है, बल्कि कभी-कभी तो उससे भी ज्यादा प्लूटोनिक मिलता है । वह कई बार सोचते है, ‘आग उधर भी है लगी हुई’! वह धुएं की प्रतीक्षा करते हैं। जब धुआं नहीं निकलता तो दाज्यू अपने घनघोर आशावादी स्वभाव के अनुरूप तीतर सी चपल पर प्यार के प्रति गाय सी उदासीन दिखने वाली कन्या के कानों तक अपना स्वर पहुंचाने की कोशिश करते हैं,-
जीत ही लेंगे बाजी हम तुम, खेल अधूरा छूटे ना,
प्यार का बंधन, जनम का बंधन, जनम का बंधन टूटे ना..
इसे टुटका कहा जाता हैं। इतिहास में इसे सफल होते देखा गया है।-आजमाते हैं, धैं!
मिलता है जहां धरती से गगन आओ वहीं हम जाएं,
तू मेरे लिए मैं तेरे लिए इस दुनिया को ठुकराएं….
एवज में उन्हें सुनने मिल सकता हैं, ‘दै’ । खैर, इस दौर में वह जूते-कपड़ों के प्रति थोड़े लापरवाह हो जाते हैं- कई दाज्यू तो हफ्ता दस दिन तक स्नान भी नहीं करते। कुछ कविताएं आदि लिखते पाए जाते हैं। कुछ लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार जाते हैं। उनका दिल कहता है-‘मैं रात इसके सपने में आऊॅ और दिल की बात कह दूं, अगली सुबह वो आए और सीने से लग कर कहे, ‘तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, न आगे कभी होगा, पर जो होगा देखा जाएगा। मैं तुमसे प्यार करती हूं। तुम्हारे अलावा मन से किसी की नहीं हो सकती,…… विद्या कसम ….’, पर ऐसा होता नहीं। दाज्यू शायद उसके सपने में जा नहीं पाते। जाते भी होंगे तो जाने किस रूप में! सपनों के साथ यह बड़ी खराबी हैं कि देखने वाला तो देख लेता हैं, पर उसके पात्रों को पता नहीं चलता कि वह कहां क्या ड्रामा करायें। दाज्यू भी इस बात को समझते हैं, अब वह थोड़े कातर भाव लगाते हैं-
चांद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर,
वो बेचारा दूर से देखे, करे न कोई शोर…..
कन्या की भाभियां आदि इस अवस्था को ‘सैंटीना’ (जिद्दीपना) कहती हैं। इस बीच वह सामाजिक उपन्यास आदि पढ़ते हैं और दुखान्त कहानियों के नायक सरीखे दिखने लगते हैं।
कुछ दाज्यू भाग्यशाली होते हैं जिनकी कोहनी कभी अखण्ड रामायण या भागवत के समय मादा को छूं जाती है। वह चाहते हैं कि लड़की ‘कांटा लगा….’ गाये पर वह रामायण का टेक पद ‘ मंगल भवन अमंगल हारी…’ गाती है। सच तो यह हैं कि दाज्यू को इंतजार रहता है दिल के टूटने का। वह टूटता भी है, पर यहां-वहां जाकर नहीं गिरता,- फ्रेम में जकड़े कांच की तरह वहीं टिका रहता है। बचपन में जिस लड़की के साथ आइस-पाइस, डैन-डैन या छुपम-छुपाई खेली हो उसके अन्दर भक्ति भाव के सागर को हिलोरे मारता देख दाज्यू कलतारी (अचंभित) जाते हैं । भंडारे में ‘बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना….’ लिखने वाले शायर के प्रति अगाध श्रद्धा से भरे दिल और उससे जुड़े हाथ और उससे जुड़ी बाल्टी से जब आलू की सब्जी उसके पत्तल में परोसते, उसकी आंखों में आंखे डालते है, तब उनको पता लगता है कि भंडारे में भौलंटियर बनने के पीछे उनकी असली प्रेरणा क्या रही होगी। पर सुनने मिलता है ‘छौंके की मिर्चा है तो डाल दो-दाज्यू।’ किरकिरी का डाउट तो उन्हें होगा ही पर भण्डारे जैसे धार्मिक प्रीतिभोज पर वह ‘मासूम भूल’ कर बैठे ऐसी संभावना से भी उनका दिल इन्कार नहीं कर रहा होगा। इस चौथाई प्रेम कहानी की नायिका की सहेलियां जो इत्तेफाक से या सोची समझी रणनीति के तहत दाज्यू के इश्क और रूसवाई की गवाह हैं, उन्हें देखकर अजब ढंग से मुस्काती हैं–‘शिबौ-शिब’!, एक अन्य सिचुएशन में इन सहेलियों में से एक-आध विकासशील कन्या उन पर तरस खा, मेहरबान होने के लक्षण दिखाती है, पर दाज्यू अपने चांद को छोड़ किसी तारे के साथ कैसे…..! तब उन्हें बैराग्य सा आता है। फिर चला जाता है। ऐसे मरहलों से गुजर कर कई दाज्यू एक दिन के डेढ़ दर्जन तक इश्क करते है। जिसको देखा उससे इश्क। इस दौरान यदि बारिश हो जाय तो वह कुछ मौलिक कविताएं लिखते या कुछ विशेष फिल्मी गीत गाते हैं;
इसके उदाहरण देखें-
मौलिक कविता (छायावादी)-
उदास हैं दिल के पहाड़,
गवाह हैं पेड़, चांदनी,
और सूने मकान के किवाड़………आदि।
विशेष गीत (मूल गायक मुकेश)-
तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं,
तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी…..।
अंततः अधिकांश दाज्यू गोठ की शादी में, पंडित के कहने पर, पहली बार अपनी पत्नी के रूप में किसी कन्या का हाथ पकड़ते हैं। दोस्त और शागिर्द जब उपस्थित कन्या समाज के चेहरों के नब्बे प्रतिशत बेमतलब गीतों और ठिठोली में से ‘मोस्ट रैलिभैंट’ सन्दर्भ को चुनकर रहस्यमय अंदाज में दाज्यू के कान में डालते हैं तो दाज्यू हाल में पुती छत पर अर्थपूर्ण निगाह मारते हैं। मानो वहां उन्होने खुफिया कैमरा लगवा रखा हो जिससे बाद में पुष्टि कर ली जाएगी कि मुद्दा कितना जिनुइन है। उदाहरण के लिए यदि कन्या समाज गाए, ‘पान खाए सैया हमारो..’ और शागिर्द उनके कान में फुसफुसाए, ‘दाज्यू इनको जरूर ‘छिपड़ी’ ने बताया होगा कि आप भी जड़ी लेने पान सिंह के पास देवीधूरा गये थे…. और कौन बता सकता हैं……?’ तब दाज्यू छत की ओर देखते हुए उसकी बात हजम करते हैं और वहीं निगाह टिकाए कान में फूँकते हैं,
“….इट्स ऐलीमेंट्री माई डियर वाटसन, तू जरा पत्त लगा, किं नाम्ने फादरस्य कन्या हमर ब्रदर दगड़ लसर-पसर करोति-देयर, ऑन दैट राइट कार्नर।”
[जारी है…]
[…] This post was mentioned on Twitter by Ravishankar, merapahad. merapahad said: अथ दाज्यू गाथा : प्रेम में पागल दाज्यू http://goo.gl/fb/rKbEC […]
वाह-वाह त्याड्ज्यू, मज्जा आ गया कहा हो दाज्यू गाथा पढ़ के।
Tiwari jyu ke sat-sat pranaam………………hasi hasi bher bhati farki gee…………yosse byangya likhne raya…………
thik kun racha go tum daju prem mai wastaw mai pagal hai rai aajkal ka daju log.
यह अत्यंत हर्ष का विषय है की उमेश तिवारी जी के लेख अब "अपना उत्तराखंड" पर भी पढने को मिलेंगे… यह लेख बहुत पसंद आया..
daju bahut hi badiya lage raho bhai…… mat-lab daju…..daju…..
ek tha gadha kay aladat se kab daju per likhne laga pata nahi laga
dheeraj
Good One
Tiwari je thanks a lot for writing such a beautiful autobiography on "Daju". Indeed it was so pleasant. I must say most of us had such experience during our college time. please keep on writing. All the best.
सच्ची 'दाज्यू' आप तो कमाल ही कर गए.
दाज्यू तुसी ग्रेट हो !
i like Dajyu Ghatha……..
very entertaining writeup. Tewari ji, keep it up. loking forward to reading more such articles.